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छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास / प्रागैतिहासिक काल / Chhattisgarh ka itihaas
राज्य में प्राचीन साक्ष्यों के सर्वाधिक जानकारी कब्रा पहाड़ से प्राप्त हुई है। ऐतिहासिक स्रोतों के दृष्टिकोण से छत्तीसगढ़ की इतिहास को तीन भागों में विभाजित किया गया है या बांटा गया है :- पहला प्रागैतिहासिक काल इस काल का कोई लिखित विवरण उपलब्ध नहीं है, दूसरा आद्य ऐतिहासिक काल इस काल का लिखित विवरण तो प्राप्त हुई है, लेकिन उसको पढ़ा नहीं जा सकता तथा तीसरा ऐतिहासिक काल इस कॉल में प्राप्त हुई लिखित विवरण को पढ़ा जा सकता है और समझा जा सकता है।
प्रागैतिहासिक काल
प्रागैतिहासिक काल से आशय उस काल से है जिस काल के बारे में कोई लिखित जानकारी उपलब्ध नहीं है। पाषाण के प्रयोग के कारण इस युग को पाषाण युग के नाम से जाना जाता है। भारत में प्रागैतिहासिक संस्कृति के विभिन्न प्रमाण मिले हैं।
इस काल में जब मनुष्य कंदराओं में निवास करता था, तब उसने इन शैलाश्रयों में अनेक चित्र बनाया थे। इस काल के विविध औजार एवं स्मारक छत्तीसगढ़ में भी प्राप्त हुए हैं। विकास की अवस्था के आधार पर इस युग को चार भागों में विभाजित किया गया है :-
1. पूर्व पाषाण युग
2. मध्य पाषाण युग
3. उत्तर पाषाण युग
4. नवपाषाण युग
1. पूर्व पाषाण युग
पूर्व पाषाण युग के औजार महानदी घाटी तथा रायगढ़ जिले के सिंघनपुर से प्राप्त हुए हैं। इस काल के शैल चित्र रायगढ़ जिले के सिंघनपुर तथा कब्र पहाड़ से प्राप्त हुए हैं। सिंघनपुर के चित्रकारी गहरे लाल रंग की है, इसमें शिकार का दृश्य किया गया है।
कबरा पहाड़ पर भी लाल रंग से विभिन्न चित्रों जैसे - छिपकली ,घड़ियाल, सांभर इसी प्रकार के अन्य पशुओं तथा पंक्तिबद्ध मानव समूह सहित प्रतीकात्मक चित्रांकन किया गया है।
रायगढ़ जिले के बसनाझर, ओंगना, करमागढ़, बोतलदा (से रॉक गार्डन) , लेखभाड़ा, तथा राजनांदगांव के चितवा डोंगरी में शैलचित्रों की एक श्रृंखला प्राप्त हुई है।
2. मध्य पाषाण युग
मध्य पाषाण युग में लंबे फलक, अर्धचंद्राकार लघु पाषाण के औजार रायगढ़ जिले के कबरा पहाड़ के निकट चित्रित सालासर से प्राप्त हुई है। मध्य पाषाण युगीन 500 घेरे स्मारक बालोद व कोंडागांव से प्राप्त हुए हैं । इन पाषाण घेरों के अंदर शवों को दफना कर बड़े पत्थरों से ढक दिया जाता था।
3. उत्तर पाषाण युग
इस युग में पाषाण के औजार महानदी घाटी बिलासपुर जिले के धनपुर तथा रायगढ़ जिले के सिंघनपुर से प्राप्त हुई है।
4. नवपाषाण युग
नवपाषाण काल में मानव सभ्यता की दृष्टि से विकास कर चुका था तथा उसने कृषि कार्य, पशुपालन, गृह का निर्माण, बर्तनों का निर्माण आदि कार्य सीख लिया था। ये गुफाओं में चित्रकारी करने की कला जानते थे। इस युग के औजार अर्जुनी (दुर्ग), चीत्वाडोंगरी एवं बोन टीला (राजनांदगांव) टेरम (रायगढ़) नामक स्थानों से प्राप्त हुए हैं।
पाषाण युग के पश्चात ताम्र युग और लौह युग आता है। लौह युग में शव को गाड़ने के लिए बड़े-बड़े शीलाखंडों का प्रयोग किया जाता था जिसे महापाषाण स्मारक का जाता है। छत्तीसगढ़ में दुर्ग जिले के धनोरा तथा बालोद जिले के चकरभाटा , करहीभदर, चिरचारी, सोरर में इन महापाषाण स्मारकों के अवशेष मिले हैं।ऐतिहासिक युग- सिंधु घाटी सभ्यता से संबंधित साक्ष्य छत्तीसगढ़ में प्राप्त नहीं हुए हैं।
आद्य ऐतिहासिक काल
इस काल का समय लगभग 2300 से 1750 ईसापुर है। इसके अंतर्गत सिंधु घाटी सभ्यता, हड़प्पा सभ्यता, कांस्ययुगीन सभ्यता को शामिल किया जाता है, किंतु इस सभ्यता के साक्ष्य छत्तीसगढ़ में नहीं मिलते हैं।
वैदिक काल इस काल को दो भागों में बांटा गया है-
1. पूर्व वैदिक काल
इस काल के साक्ष्य छत्तीसगढ़ में प्राप्त नहीं हुए हैं।
2. उत्तर वैदिक काल
उत्तर वैदिक कालीन सभ्यता का वर्णन कौशितकीय उपनिषद से प्राप्त होता है। इस काल से संबंधित रामायण एवं महाभारत काल के साक्ष्य छत्तीसगढ़ में प्राप्त हुए हैं -
रामायण काल
इस काल में छत्तीसगढ़ के क्षेत्र को दक्षिण कौशल कहा जाता था । दक्षिण कौशल की राजधानी श्रावस्ती थी। इस क्षेत्र के राजा माता कौशल्या के पिता भानुमंत थे।
कौशल्या की शादी अयोध्या के राजा दशरथ के साथ हुई थी। चूंकि भानुमंत का कोई पुत्र नहीं था अतः संपूर्ण कौशल का राज्य राजा दशरथ को प्राप्त हुआ।
श्री राम द्वारा सीता का त्याग कर देने के बाद तुरतुरिया में स्थित महर्षि वाल्मीकि ने अपने आश्रम में सीता जी को शरण दिया और यही लव और कुश का जन्म हुआ।
राम के पश्चात उत्तर कौशल के राजा लव हुए जिनकी राजधानी श्रावस्ती थी तथा कुश को दक्षिण कौशल का राज्य मिला जिसकी राजधानी कुशस्थली थी।
छत्तीसगढ़ में रामायण कालीन प्रमुख स्थल निम्न है
- रामगढ़ की पहाड़ी जो कि सरगुजा जिला में है
- तुरतुरिया आश्रम (बलौदा बाजार जिला)
- शिवरीनारायण (जांजगीर चांपा)
- खरौद (महासमुंद)
- दंडकारण्य का पठार (पंचवटी केशकाल)
- राम झरना (रायगढ़)
- सीता लेखनी गुफा ( सूरजपुर)
- सीतापुर( प्रतापपुर) ,
- लक्ष्मण पांव (ओड़गी) आदि।
महाभारत काल
महाभारत काल में इस क्षेत्र को "प्रक्कोशल" तथा बस्तर के क्षेत्र को " कांतार" कहा जाता था। महाभारत कालीन प्रमुख स्थल निम्न है
- 1. गुंजी ( ऋषभ तीर्थ) - जांजगीर -चांपा
- 2. खल्लारी
- 3. सिरपुर - अर्जुन व चित्रांगदा के पुत्र भब्रुवाहन की राजधानी थी। इस काल में सिरपुर का नाम चित्रांगदपुर था।
- 4. रतनपुर - मोरध्वज और उसके राजकुमार ताम्रध्वज की राजधानी थी। इस काल में रतनपुर को मणिपुर कहा जाता था। मोरध्वज ने आरंभ को राजधानी बनाया था।
बौद्ध एवं जैन धर्म
अवदान शतक नामक एक ग्रंथ से पता चलता है कि महात्मा बुध सिरपुर यानी कि छत्तीसगढ़ आए थे तथा लगभग 3 माह तक यहां की राजधानी श्रावस्ती में उन्होंने प्रवास किया था।
ऐसी जानकारी चीनी यात्री हेनसांग के यात्रावृतांत से मिलती है।
छठी शताब्दी में बौद्ध भिक्षु प्रभु आनंद ने सिरपुर में स्वास्तिक विहार एवं आनंद कुटी विहार का निर्माण कराया था।
ऋषभदेव के विषय में जानकारी गूंजी ( जांजगीर चांपा )से ,पार्श्वनाथ की नागपुरा( दुर्ग) से तथा महावीर की आरंग (रायपुर) से मिलती है।
महाजनपद काल
महाजनपद काल में देश 16 महाजनपदों में विभक्त था । इस काल में छत्तीसगढ़ चेदि महाजनपद के अंतर्गत शामिल था । चेदि महाजनपद की राजधानी शक्तिमति थी।
चेदि महाजनपद के अंतर्गत शामिल होने के कारण इसे चेदिसगढ़ भी कहा जाता था । छत्तीसगढ़ का वर्तमान क्षेत्र भी दक्षिण कोशल के नाम से एक पृथक प्रशासनिक इकाई हुआ करती थी।
मौर्य काल से पूर्व के सिक्कों की प्राप्ति से इस अवधारणा की पुष्टि होती है।
राज्य में शासन करने वाले प्रमुख वंश
राज्य में शासन करने वाले प्रमुख वंश निम्न है-
1. मौर्य वंश ( 322 - 185 ई. पू.)
ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार छत्तीसगढ़ कलिंग देश का भाग था। अशोक के कलिंग विजय के पश्चात छत्तीसगढ़ मौर्य साम्राज्य का अंग बन गया।
इसकी पुष्टि चीनी यात्री युवान च्वांग( हेनसांग) के रचना सी.यू. की. से पता चलता है, जिसके अनुसार सम्राट अशोक ने यहां की बौद्ध स्तूप का निर्माण कराया था।
रामगढ़ की पहाड़ी में स्थित जोगीमारा की गुफा से मौर्यकालीन लेख प्राप्त हुए हैं, जिसकी भाषा पाली तथा लिपि ब्राह्मणी है।
इस अभिलेख में सूतनुका नामक देवदासी एवं उसके प्रेमी देवदिन (देवदत्त) के प्रेमगाथा का उल्लेख है। इस गुफा में उपस्थित चित्र मूर्ति कला का उत्कृष्ट उदाहरण है।
भरत मुनि ने अपनी पुस्तक नाट्य शास्त्र की रचना 200 ई.पू. में रामगढ़ की पहाड़ी में किया था।
इस काल के दो अभिलेख सरगुजा जिले में मिलते हैं। जांजगीर-चांपा जिले के ठठारी और अकलतरा तथा रायगढ़ जिला के बार व तारापुर से मौर्य कालीन सिक्के प्राप्त हुए हैं।
2. सातवाहन काल ( 200 - 72 ई. पू.)
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद दक्षिण भारत में सातवाहन राज्य की स्थापना हुई। दक्षिण कौशल का अधिकांश भाग सात वाहनों के प्रभाव क्षेत्र में था। सातवाहन वंश के शासक स्वयं को दक्षिण - पथ का स्वामी कहते थे।
सातवाहन शासक ब्राह्मण जाति के थे । इन्होंने अपनी राजधानी महाराष्ट्र में स्थापित की थी। छत्तीसगढ़ में इस वंश के प्रमुख शासक शातकर्णी प्रथम , अपीलक एवं वरदत्तश्री थे ।
शातकर्णी प्रथम ने अपने राज्य का विस्तार जबलपुर तक किया था। इस प्रकार त्रिपुरी सातवाहनों के प्रभाव में आ गया था।
इसी काल के प्रथम सदी में बौद्ध भिक्षु नागार्जुन ने छत्तीसगढ़ की यात्रा की थी। इसी काल का एक काष्टस्तंभ लेख जांजगीर जिले के किरारी ( चंद्रपुर) नामक स्थान से प्राप्त हुआ है, जो वर्तमान में घासीदास संग्रहालय रायपुर में स्थित है।
सातवाहन राजा अपील की मुद्राएं रायगढ़ जिले के बालपुर एवं बिलासपुर जिले के मल्हार से प्राप्त हुई है। सातवाहन काल में भारत का रोम के साथ व्यापारिक संबंध था ।
रोमकालीन सोने के सिक्के चकरबेड़ा (बिलासपुर ) नामक स्थान से प्राप्त हुई है। सात वाहनों के शासनकाल में आर्य संस्कृति का विस्तार दक्षिण में व्यापक रूप से हुआ है।
3. कुषाण वंश
कुषाण वंश के शासक विक्रमादित्य का कनिष्क के कई सिक्के छत्तीसगढ़ से प्राप्त हुए हैं। बिलासपुर जिले से कुषाण वंश के राजाओं के तांबे के सिक्के प्राप्त हुए हैं।
इन सिक्कों से प्रमाणित होता है कि राज्य में कुषाणों की सत्ता रही होगी। तेलीकोटा (रायगढ़) से कुषाण कालीन स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त हुई है।
4. वाकाटक वंश (300 - 400 ई. पू.)
इस वंश की प्रथम राजधानी नंदीवर्धन (नागपुर) थी। वाकाटक नरेशों को बस्तर की कोरापुट क्षेत्र में राज्य करने वाले नल शासकों से संघर्ष करना पड़ा था।
महेंद्रसेन समुद्रगुप्त के द्वारा पराजित हुआ था इसका उल्लेख हरिषेण की कृति "प्रयाग प्रशस्ति" में मिलता है।
रूद्रसेन द्वितीय का विवाह चंद्रगुप्त द्वितीय की बेटी प्रभावती से हुआ था । प्रवरसेन प्रथम के दरबार में चंद्रगुप्त द्वितीय का चारण कवि कालिदास आए थे।
इन्होंने इस क्षेत्र को स्वर्ग का द्वार कहा था। कालिदास जी ने " मेघदूत" की रचना सरगुजा जिले की रामगढ़ की पहाड़ी में किए थे। मुकुटधर पांडे जी ने कालिदास की जी की रचना मेघदूत का छत्तीसगढ़ी भाषा में अनुवाद किया था।
प्रवरसेन प्रथम ने दक्षिण कोशल के समस्त क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। प्रवरसेन कालीन ताम्रपत्र बालाघाट छिंदवाड़ा व बैतूल से प्राप्त हुए हैं।
नरेंद्रसेन नल ववंशी शासक भावदत्त ने इसकी राजधानी नंदी वर्धन पर आक्रमण कर इसे परास्त कर दिया था।
पृथ्वीसेन द्वितीय - नरेंद्रसेन के पुत्र पृथ्वीसेन द्वितीय ने इसका बदला लिया और भाव दत्त के उत्तराधिकारी अर्थपति को पराजित किया तथा पुष्करी (भोपालपटनम) को बर्बाद कर दिया।
किंतु बाद में दक्षिण कोशल में नल राजा स्कंदवर्मा द्वारा नल वंश की पुनः स्थापना कर बस्तर की पुष्करी (भोपालपटनम) को राजधानी बनाया। संभवत त्रिपुरी के कर्मचारियों ने वाकाटकों का अंत कर दिया।
वाकाटकों की स्वर्ण मुद्राएं छत्तीसगढ़ में बानबरद (मोहल्ला) नामक स्थल से तथा अन्य सिक्के दुर्ग से प्राप्त हुए हैं।
5. गुप्त वंश ( 319 - 500 ई.)
उत्तर भारत में शुंग एवं कुषाण सत्ता के पश्चात गुप्त वंश ने राज्य किया तथा दक्षिण भारत में सातवाहन शक्ति के प्रभाव के पश्चात गुप्त वंश की स्थापना हुई ।
इस काल में छत्तीसगढ़ को दक्षिणापथ एवं बस्तर को महाकांतार कहा जाता था। इलाहाबाद स्थित प्रयाग प्रशस्ति (हरिषेण) में समुद्रगुप्त द्वारा पराजित दक्षिण कोशल के राजा महेंद्रवर्मन (वाकाटक वंश) तथा महाकांतार के राजा व्याघ्रराजा (नल वंश) का उल्लेख मिलता है।
इस क्षेत्र का गुप्त साम्राज्य में विलय नहीं किया गया था। गुप्तकालीन सिक्के बानबरद (दुर्ग) एवं आरंग व पिटाईवल्द ग्राम (रायपुर) से प्राप्त हुए हैं। खरसिया के निकट विक्रमादित्य का धनुर्धारी सिक्का प्राप्त हुआ है।
आरंग में कुमारगुप्त का सिक्का मिला है। भानुगुप्त का एरण अभिलेख छत्तीसगढ़ से प्राप्त हुआ है। गुप्तकालीन मंदिर देवरानी - जेठानी तथा केंवटिन मंदिर का भी उल्लेख है।
राज्य के क्षेत्रीय राजवंश
छत्तीसगढ़ के क्षेत्रीय राजवंश निम्न है :-
1. राजर्षितुल्य वंश
राजर्षितुल्य वंश को सूरा राजवंश भी कहा जाता है। राजर्षितुल्य वंश के राजाओं राजाओं की राजधानी आरंग थी । दक्षिण कोशल में इस वंश के राज्य करने के विषय में जानकारी भीमसेन द्वितीय के आरंग ताम्रपत्र से मिलती है।
इस वंश के शासकों ने गुप्तों की अधीनता स्वीकार की थी। आरंग ताम्रपत्र के अनुसार इस वंश के 6 राजाओं ने क्रमशः शासन किया था। प्रमुख शासक - सुरा, दयित, विभीषण, भीमसेन प्रथम, दयित द्वितीय, भीमसेन द्वितीय हैं। इस वंश की राजमुद्रा सिंह थी।
2. पर्वतद्वारक वंश
महाराजा तुष्टीकर के तेराशिंघा ताम्रपत्र से इस वंश के दो शासकों के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है। पहले राजा सोमन्नराज की माता जब दाहज्वर से बीमार पड़ गई थी, तब सोमन्नराज ने देवभोग क्षेत्र का दान किया था।
दूसरे राजा तुष्टिकर द्वारा तारभ्रमक से पर्वतद्वारक तक का ग्राम दान में दिया था। इस लेख से ज्ञात होता है, कि इस वंश के लोग स्तंभेश्वरी देवी के उपासक थे, जिसका स्थान पर्वतद्वारक उड़ीसा में था।
पर्वतद्वारक वंश का नाम इसी आधार पर रखा गया है। इसके अधिकार क्षेत्र में रायपुर का दक्षिणी भाग आता था।
3. नल वंश (5वीं - 12वीं शताब्दी)
नल वंश का संस्थापक शिशुक ( 290-330ई.) को माना जाता है, परंतु कुछ विद्वान इसका वास्तविक संस्थापक वराहराज को मानते हैं। नल वंश की राजधानी कोरापुट वर्तमान उड़ीसा व पुष्करी भोपालपटनम) थी, इस वंश के अस्तित्व का साक्ष्य सारंगढ़ से मिलता है। नल वंश का वर्णन वायु पुराण में मिलता है।
नल वंश के पांच प्रमुख अभिलेख मिले हैं-
- 1. पण्डियापादर केसरिबेडा - अर्थपति भट्टारक
- 2. राजिम शिलालेख - विलासतुंग
- 3. ऋद्धिपुर - भवदत्त
- 4. पोढागढ़। - स्कंदवर्मन
- 5. संस्थापक - शिशुक ( वास्तविक संस्थापक वराहराज)
- 6. राजधानी - कोरापुट पुष्कर री
व्याघ्रराज - इसे समुद्रगुप्त ने परास्त किया था। वराहराज की 29 स्वर्ण मुद्राएं कोंडागांव के एड़ेंगा नामक स्थान से मिला है।
अर्थपति - भावदत्त वर्मन के उत्तराधिकारी अर्थपति (केसरीबेड़ा ताम्रपत्र ) को वाकाटक नरेश पृथ्वीसेन द्वितीय ने पराजित किया तथा राजधानी पुष्करी को तहस-नहस कर दिया था।
स्कंदवर्मन - अर्थपति के बाद उसका अनुज स्कंदवर्मन (पोड़ागढ़ शिलालेख) शासक बना। इसने नष्ट हो चुके पुष्करी को पुनः स्थापित किया। स्कंदवर्मन के पश्चात नल राजाओं के विषय में प्रमाणिक जानकारी नहीं मिली है।
बिलासतुंग - राजिम शिलालेख से इसके पिता विरुपाक्ष और पितामह पृथ्वीराज के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है। राजिम से प्राप्त विलासतुंग के प्रस्तर अभिलेख से बिलासतुंग की राज्यावधि 700 से 740 ई. ज्ञात की जाती है ।
यह विष्णु का उपासक था। राजिम स्थित राजीव लोचन मंदिर विलासतुंग द्वारा ही बनवाया गया था। विलासतुंग पाण्डुवंशीय शासक महाशिवगुप्त बालार्जुन का समकालीन था। चौथी से 12वीं शताब्दी के मध्य लगभग 800 वर्षों तक शासन करने के पश्चात इनका अंत हो गया।
बाद में कलचुरी एवं काकतीय वंश ने बस्तर क्षेत्र में अधिकार कर लिया। नरेंद्र धवल को नल वंश का अंतिम शासक माना जाता है।
4. शरभपुरीय वंश ( 600 - 700 ई.)
शरभपुरीय वंश की राजधानी - शरभपुर ( संबलपुर ) है। इस क्षेत्र को देखा जाए तो उत्तर - पूर्वी क्षेत्र मल्हार, सारंगढ़, रायगढ़, संबलपुर, शिवरीनारायण, मस्तूरी तथा पामगढ़ आते हैं। शरभपुरीय वंश को अमरार्य कुल भी कहा जाता था ।
शरभराज - शरभपुरीय वंश का संस्थापक था। भानु गुप्त के ऐरण स्तंभ लेख में शरभराज का वर्णन मिलता है।
नरेंद्र - शरभराज का उत्तराधिकारी उसका पुत्र नरेंद्र था। इसके नाम का विवरण कुरूद, पिपरुदला ताम्रपत्र से मिलते हैं।
प्रसन्नमात्र - शरभपुरीय वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था तथा एक विष्णु भक्त था। इसने अपने नाम से निडीला नदी (लीलागर नदी) के तट पर प्रसन्नपुर (मल्हार) नामक नगर की स्थापना की थी।
गरुड़, शंख, चक्र युक्त सोने के सिक्के चलाए थे। प्रसन्नमात्र के पुत्र जयराज ने दुर्ग शहर की स्थापना किया और वहां पर "गज लक्ष्मी" की सिक्का चलाया था।
प्रवरराज प्रथम - इसने श्रीपुर (सिरपुर) में अपनी राजधानी स्थापित किया था।
सुदेवराज - प्रवरराज प्रथम का उत्तराधिकारी था । कौवाताल अभिलेख (महासमुंद) में इसके सामंत इन्द्रबल का वर्णन है।
प्रवरराज द्वितीय - शरभपुरीय वंश का अंतिम राजा था जिसके दो ताम्रपत्र ठाकुरदिया और मल्हार से प्राप्त हुए हैं । सुदेवराज के सामंत इंद्रबल ने प्रवरराज द्वितीय को मारकर श्रीपुर में पांडव वंश की नींव रखी थी।
शरभपुरीय वंश की राजमुद्रा" गजलक्ष्मी "था। इस वंश ने अपने ताम्रपत्र में 'परमभागवत' उत्कीर्ण करवाया था।
श्रीपुर के पाण्डुवंश अथवा सोमवंश
शरभपुरीय वंश की समाप्ति के बाद पाण्डुवंशियों ने दक्षिण कोशल में अपने वर्चस्व की स्थापना की। उन्होंने सिरपुर को अपनी राजधानी बनाया।
ये अपने को सोमवंशी पांडव कहते थे। वस्तुतः सोनपुर - बलांगीर क्षेत्र में राज्य करने वाले परवर्ती सोमवंशीयों से भिन्नता प्रकट करने के लिए इनका उल्लेख पाण्डुवंश के रूप में किया जाता है।
साथ ही मैकल में इस राजवंश को पाण्डुवंश तथा दक्षिण कोशल में इन्हें सोमवंशी कहा गया है। इस वंश का प्रथम संस्थापक व राजा उदयन था।
सोमवंश के प्रसिद्ध शासक निम्न है:-
1. इन्द्रबल -
इंद्रबल उदयन का पुत्र था तथा इसने पाण्डुवंश की स्थापना किया था। इसने इंद्रपुर वर्तमान खरौद नामक नगर की स्थापना किया था तथा यहीं पर लक्ष्मणेश्वर मंदिर का निर्माण कराया था। यह शरभपुरीय शासक प्रवरराज द्वितीय का सामंत था।
2. नन्नराज प्रथम -
इंद्रबल के चार भाइयों में सबसे बड़ा भाई था। यही इंद्रबल का उत्तराधिकारी हुआ। इसने अपने शेष तीन भाइयों को मंडलाधिपति के रूप में स्थापित किया। दूसरे भाई का नाम सुरबल था।
तीसरे भाई इशानदेव का उल्लेख खरौद के लक्ष्मणेश्वर मंदिर के शिलालेख में हुआ है। चौथे भवदेव "रणकेसरी" की जानकारी उसके भांदक शिलालेख से प्राप्त होता है।
3. महाशिव तीवरदेव -
नन्नराज प्रथम का पुत्र एवं उसका उत्तराधिकारी महाशिव तीवरदेव था । इस वंश का सर्वप्रथम प्रतापी शासक था। तीवरदेव का काल पाण्डुवंशी सत्ता का उत्कर्ष का काल कहा जाता है। इसने "सकल कोसलाधिपति" की उपाधि धारण की थी तथा यह वैष्णो धर्म को मानता था।
4. नन्नदेव/ नन्नराज द्वितीय -
यह तीवरदेव का पुत्र तथा उसका उत्तराधिकारी था। इसे कोशल मंडलाधिपति की उपाधि दी गई थी। इसका एकमात्र ताम्रपत्र अड़भार से प्राप्त हुआ है।
5. चंद्रगुप्त -
नन्नदेव संतान विहीन था अतः उसकी मृत्यु पर उसका चाचा चंद्रगुप्त उत्तराधिकारी बना। सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर स्थित शिलालेख में राजा चंद्रगुप्त का उल्लेख मिलता है।
6. हर्षगुप्त -
हर्षगुप्त चंद्रगुप्त का पुत्र तथा उसका उत्तराधिकारी था। हर्षगुप्त ने त्रिकलिंगधिपति की उपाधि धारण की थी। हर्षगुप्त का विवाह मगध के मौखरी राजा सूर्यवर्मा की पुत्री वासटादेवी से हुआ था।
इसके 2 पुत्र महाशिव गुप्त व रणकेसरी थे। हर्ष की मृत्यु के पश्चात उसकी पत्नी वास्टा ने उसकी स्मृति में सिरपुर में ईटों से निर्मित लक्ष्मण मंदिर का निर्माण करवाया था जो कि विष्णु भगवान का मंदिर है। इस क्षेत्र में उत्तर गुप्त वास्तुकला का श्रेष्ठ उदाहरण है।
7. महाशिवगुप्त बालार्जुन -
महाशिव गुप्त बालार्जुन हर्ष गुप्त का पुत्र तथा उसका उत्तराधिकारी था। बचपन में ही धनुर्विद्या में पारंगत हो जाने के कारण बालार्जुन कहलाया। इसने (595- 655 ई.) के मध्य 60 वर्षों तक शासन किया।
पाण्डुवंश के शासक वैष्णो धर्म के अनुयायी थे, परंतु बालार्जुन शैव धर्मावलंबी होने के बाद भी अन्य धर्मों के प्रति उदार एवं सहिष्णु था। इसके समय राजधानी श्रीपुर एवं अन्य स्थलों में शैव, वैष्णो, बौद्ध, और जैन धर्मों से संबंधित अनेक स्मारकों एवं कृतियों का निर्माण हुआ।
इसने सिरपुर स्थित लक्ष्मण मंदिर के निर्माण कार्य को पूरा कराया। सिरपुर इस काल में बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में प्रख्यात था। 639 ई. में व्हेनसांग ने बालार्जुन के शासनकाल में सिरपुर की यात्रा की थी।
इसका उल्लेख उसने अपनी रचना "सी- यू/ की" में किया तथा इस क्षेत्र को "किया- स - लो" के नाम से उल्लेखित किया।
महाशिवगुप्त कन्नौज के हर्ष का समकालीन था । इसके शासनकाल को " दक्षिण कोशल अथवा छत्तीसगढ़ के इतिहास का स्वर्ण काल" कहा जाता है।
वातापी नरेश पुलकेशिन द्वितीय के "ऐहोल प्रशस्ति" के अनुसार 634 ई. में बालार्जुन को पुलकेशिन द्वितीय ने परास्त किया था तथा बालाजी ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी।
बालाजी ने परम महेश्वर की उपाधि धारण की थी, जबकि इसकी पूर्वज "परम भागवत" की उपाधि धारण करते थे। बालार्जुन के बाद के शासक महत्वपूर्ण सिद्ध नहीं हुए इसके बाद इस वंश का पतन आरंभ हो गया। संभवत पाण्डुवंश के पतन में नल वंश बिलासतुंग (700 - 740ई.) तथा बाडवंशी विक्रमादित्य (870 - 895 ई.) की भूमिका थी।
नल,बाड और कल्चुरियों द्वारा छत्तीसगढ़ क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के कारण श्रीपुर के पाण्डुवंश के शासकों को पूर्व की ओर जाना पड़ा तथा उन्होंने उड़ीसा के सोनपुर क्षेत्र में सोमवंश के नाम से राज्य स्थापित किया।
इस वंश का सर्वप्रथम राजा शिवगुप्ता था जो त्रिकलिंग का अधिपति कहलाया। दक्षिण के राजा राजेंद्र चोल ने इस क्षेत्र पर आक्रमण कर कोशल तथा उत्कल को अपने आधिपत्य में ले लिया।
बाद में परिवर्तित सोमवंशी शासक महाशिवगुप्त ने अपने राज्य क्षेत्र को पुनः प्राप्त कर लिया। 11 वीं सदी में ओडिशा के शासक अनंतवर्मन चोडगंग द्वारा सोमवंश के शासकों को परास्त कर उनके क्षेत्र पर अधिकार कर लिया गया।
श्रीपुर के पाण्डुवंश की अन्य शाखाएं
1. मैकाल का सोम अथवा पाण्डु वंश
अमरकंटक के आसपास का क्षेत्र में काल के नाम से जाना जाता था यहां पांडू वंश क्योंकि एक शाखा के राज्य करने के विषय में शरद बल के बहमनी ताम्रपत्र से जानकारी मिलती है।
मल्हार में इस वंश का एक और ताम्रपत्र मिला है जिसमें भरत बल के पुत्र दुर्बल का उल्लेख मिलता है।
2. ओडिसा व कांकेर का सोमवंश
ओडिशा व कांकेर दोनों श्रीपुर के पाण्डु वंश की शाखाएं थी। ओडिशा के सोमवंश की स्थापना शिवगुप्त ने की थी। शिवगुप्त ने ओडिशा को जीतकर त्रिकलिंगधिपति की उपाधि धारण की थी।
इनकी भाषा संस्कृति तथा राजमुद्रा के ऊपर देवी लक्ष्मी का चित्र अंकित था। कांकेर के सोम वंश की स्थापना सिंह राज ने की थी। इसके अन्य प्रमुख शासक कर्णराज तथा कृष्णराज थे।
3. बाण वंश
बाण वंश की राजधानी पाली थी तथा इसके संस्थापक महामंडलेश्वर मल्लदेव था। बाणवंशी शासक ने दक्षिण कौशल के सोमवंशी शासकों को इस क्षेत्र से हटाया था । प्रसिद्ध शासक विक्रमादित्य ने (870 - 895 ई.) तक शासन किया था।
विक्रमादित्य ने पाली स्थित शिव मंदिर का निर्माण कराया था । कालांतर में कलचुरी शासक शंकरगण द्वितीय मुग्धतुंग ने विक्रमादित्य से पाली का क्षेत्र जीत लिया और अपने भाइयों को इस क्षेत्र में मंडलेश्वर बनाकर भेजा, जिन्होंने दक्षिण कोशल में कलचुरी राजवंश की स्थापना की थी।
FAQ
Q. 2021- 22 में छत्तीसगढ़ में कितने जिले होंगे?
2021-22 में छत्तीसगढ़ में कुल 32 जिले हो जाएंगे। पहले 28 जिले थे। माननीय मुख्यमंत्री भुपेश बघेल जी ने 15 August 2021 को 4 नए जिले बनाने की घोषणा किये हैं । जिसमें सारंगढ़-बिलाईगढ़, सक्ति, मोहला-मानपुर और मनेंद्रगढ़ शामिल हैं।
Q. व्हेनसांग ने किसके शासन काल मे छत्तीसगढ़ की यात्रा की थी?
व्हेनसांग ने बालार्जुन के शासन काल मे छत्तीसगढ़ की यात्रा की थी।
Q. किसने त्रिकलिंगधिपति की उपाधि धारण की थी?
हर्षगुप्त ने त्रिकलिंगधिपति की उपाधि धारण की थी।
Q. किस युग में शव को गाड़ने के लिए बड़े-बड़े शीलाखंडों का प्रयोग किया जाता था?
लौह युग में शव को गाड़ने के लिए बड़े-बड़े शीलाखंडों का प्रयोग किया जाता था जिसे महापाषाण स्मारक का जाता है।
Q. What is the capital of chhattisgarh?
Raipur is the capital of chhattisgarh
धन्यवाद!
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