छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातियां, छत्तीसगढ़ की विषेष पिछड़ी जनजातियां, छत्तीसगढ़ की बैगा जनजाति, छत्तीसगढ़ में गोण्ड जनजाति
छत्तीसगढ़ की प्रमुख आदिवासी जनजातियाॅं | Chhattisgarh ki Janjati
/Adiwasi |
Major Tribes of Chhattisgarh
Adiwasi
छत्तीसगढ़ राज्य भारत का एक जनजातिय बाहुल्य राज्य है। छत्तीसगढ़ की स्थापना 1 नवंबर सन् 2000 को हुआ। इसे मध्यप्रदेष से विभाजित किया गया है। छत्तीसगढ़ में कुल 42 जनजातियां हैं, जिनमें प्रमुख जनजाति गोण्ड है,इसके अलावा कंवर, बैगा, भैना, उरावं, हल्बा, नगेषिया, भतरा, अगरिया, कमार, खैरवार, बिंझवार जनजातियां निवास करती है।
छत्तीसगढ़ राज्य में कुल 5 जनजाति को विषेष रूप से पिछड़ी जनजाति समूह का दर्जा मिला है, जिनमें अबूझमाड़िया, कमार, पहाड़ी कोरवा, बिरहोर, तथा बैगा है। इन सभी के विकाष के लिए विषेष अभिकरण का गठन किया गया है। छत्तीसगढ़ राज्य द्वारा 2 जनजाति भंुजिया तथा पण्डो को विषेष पिछड़ी जनजाति समूह के रूप में पहचान मिली है।
छत्तीसगढ़ मे जनजातियों का निवास स्थल मुख्यतः ऐसे स्थानों पर होता है,जहाॅं वनो की अधिकता हो तथा वह क्षेत्र पहाड़ियों से घिरा हो। ऐसे स्थलों पर निवास करने का मुख्य वजह यह है कि उन्हें अपने भोजन के लिय फल-फूल,कंद-मूल,इंधन के लिय जलाउ लकड़ी बड़ी असानी से उपलब्ध हो जाती है।
उन्हें जीवन निर्वाह के लिए अनेक प्रकार के जंगली जड़ी-बूटी प्राप्त हो जाते हैं,जिन्हें वे बेचकर अपनी आजिविका चलाते हैं। छत्तीसगढ़ राज्य का लगभग 14.14 प्रतिसत भाग वनों से ढका हुआ है,जबकि राज्य का लगभग एकतिहाई जनसंख्या भी जनजातिय है। राज्य में अनेक जनजातियां निवास करती हैं और उनकी जनजातीय समूह भी प्राकृतिक रूप से एक दूसरे से भिन्न है।
सामाजिक,आर्थिक और सांस्कृतिक रूपों में भी इनमें भिन्नता पाई जाती है,इसलिय इन जनजातिय समूह की समस्याएं भी भ्न्नि-भिन्न है। यहां पर छत्तीसगढ़ मे निवास करने वाले प्रमुख जनजातियों के विषय में प्राप्त होने वाली है।
छत्तीसगढ़ राज्य में निवास करने वाली प्रमुख जनजातियाॅं
गोण्ड जनजाति:-
राज्य की जनजातियों में गोण्ड जनजाति को सबसे बड़ी जनजाति के रूप में मानी जाति है। गोण्ड ष्षब्द की उत्पत्ति तमिल से हुई है,जिसका अर्थ होता है-पर्वत निवासी। लेकिन गोण्ड जनजाति स्वं को कोयतोर या कोया कहलाना पसंद करते हैं। गोण्ड जनजाति राज्य की बड़ी जनजाति होने के साथ-साथ अन्य जनजातियों की संख्या की तुलना में भी सर्वाधिक हैं।
गोण्ड जनजाति मुख्तः बस्तर के पठर और छत्तीसगढ़ के बेसिन क्षेत्रों तक फैली हुई है। गोण्डों की मातृभाषा गोण्ड़ी है जो द्रविड़ भाषा परिवार से संबंध रखते हैें। गोण्ड़ जनजाति बहुभाषी होते हैं। ये गोण्ड़ी के अलावा अन्य छह भाषाओं को द्वितीय भाषा के रूप में प्रयोग करते हैं,जिनमें मुख्य है- हिन्दी,मराठी,हल्बी,छत्तीसगढ़ी,उड़िया आदि है।
गोण्डो की अर्थव्यवस्था कृषि व वनो पर अधारित होती है। इनकी जीविका का मुख्य स्रोत कृषि है। गोण्ड़ो की एक प्रजाति पहाड़ि माड़िया होती है वे लोग परिवर्तनीय कृषि करते हैं। इस कृषि को स्थानीय भाषा में धाटिया या बेवार कृषि कहते हैं।
उराॅंव जनजाति:-
उराॅंव जनजाति को सबसे ज्यादा पढ़े लिखे जनजाति का दर्जा प्राप्त है। ये जनजाति अपने आप को ‘‘कुडुख’’ भी कहते हैं। इनकी मातृभाषा कुडुख उत्तरी द्रविड़ भाषा परिवार से संबंध रखते हैं। कुडुख भाषा के अलावा ये सदरी,छत्तीसगढ़ी,तथा हिन्दी भाषा का भी प्रयोग करते हैं।
इन्हें ‘धनगढ़ या’ ‘धनका’ भी कहा जाता है। ये ज्यादातर राज्य के रायगढ़,सरगुजा,तथा जषपुर जिले में निवास करते है। इसाई धर्म के व्यापक प्रचार के कारण उराॅंव जनजाति के लोग इसाई धर्म को अपना लिये हैं।
उराॅंव जनजाति में धुमकुरिया एक युवागृह होता है जो समाजिक और धार्मिक संस्कारों की षिक्षा देते हैं। इनमें युवकों को धांगर तथा युवतियों को धांगरिन कहा जाता है।
बैगा जनजाति:-
बैगा का अर्थ है - पुरोहित और गाॅंव में इन्हें पण्डा के नाम से भी जाना जाता है। ये बैगा जनजाति नागा बाबा को अपना पूर्वज मानते हैं। ग्राम के पुरोहित होने के साथ-साथ ये चिकित्सक के रूप मे भी जाने जाते हैं।
बैगा जनजाति समूह में हठ विवाह को पैठूल विवाह कहा जाता है। इनका निवास स्थल बिलासपुर के पहाड़ी क्षेत्रों मे फैली हुई है। इसके अलावा दुर्ग जिले में भी बैगा जनजातियों का निवास स्थल है।
ये बैगा जनजाति आर्य परिवार की पारसी भाषा या गॅंवई भाषा का प्रयोग करते हैं। बैरियर एल्विन की पुस्तक द बैगाज तथा दयाषंकर नाग की पुस्तक ट्ाइबल इकोनाॅमी बैगा जनजातियों पर लिखी गई है।
कॅंवर जनजातिः-
कॅंवर जनजाति अपना मूल निवास रायपुर के सिदर तथा रायगढ़ जिले को मानती है। इनका मानना है कि कॅंवर कौरव का हीे अपभ्रंष ह। कौरव महाभारत की ष्षासक प्रजाति थी और ये उसी से अपना संबंध जोड़ते हैं। सतनाम धरम सन्त समाज के संस्थापक संत गहिरा गुरू कॅंवर समाज के हीें थे।
बिरहोर जनजातिः-
बिरहोर का अर्थ है-वन्य जाति। बिरहोर जनजातियों का निवास स्थल रायगढ़ जिले में देखने को मिलता है। ये जनजाति छत्तीसगढ़ को अपनी मातृभाषा मानते हैं और अब ये अपने पूर्वजों की मुण्डा भाषा को भूल गए हैं। रायगढ़ के बिरहोर जनजाति पर अभी तक कोई ष्षोधकार्य नही हुआ है।
बिंझवार जनजातिः-
बिंझवार जनजाति विंध्य पर्वत के मूल निवासी होने के कारण हीें बिंझवार कहलाए। बिंझवार जनजाति छत्तीसगढ़ अंचल में निवास करती हैं तथा छत्तीसगढ़ी भाषा को हीं ये अपनी मातृभाषा मानते हैं।
ये सदरी भाषा का भी अपने दैनिक जीवन में प्रयोग करते है। छत्तीसगढ़ राज्य के महान क्रांतिकारी वीरनारायण सिंह भी बिंझवार जनजाति समुदाय के थे। टी बी नायक की बारह बिंझवार नामक पुस्तक पुरी तरह बिंझवार जनजातियों पर लिखी गई है।
भुॅंजिया जनजातिः-
‘भूम’ जिया के कारण भुॅंजिया नाम पड़ा। यह समुदाय रायपुर जिले तक सीमित है। इनकी मातृभाषा भुॅंजिया बस्तर की हल्बी से बहुत मिलता-जुलता है।
भतरा जनजातिः
भतरा का अथर््ा है-सेवक। इनका मानना है कि ये अन्नदेव के साथ 14वीं षताब्दी में वारंगल से बस्तर आए थे। ये जनजाति ओडिषा की एक बोली भतरा का प्रयोग करते हैं। भतरा जनजाति पर नेगी 1926 का उल्लेख महत्वपूर्ण है।
भैना जनजातिः-
किंवदन्ती के अनुसार, भैना जनजाति बैगा तथा कॅंवर की वर्णसंकर संताने हैैं। ये बिलासपुर तथा रायगढ़ के उपजाउ क्षेत्र में निवास करते हैं। भैना जनजाति छत्तीसगढ़ी बोली का प्रयोग करते हैं। ये लोग अपेक्षाकृत कम रूढ़िवादी और षिक्षित होते हैं।
अगरिया जनजातिः-
अगरिया जनजाति अपने को अग्नि से उत्पन्न मानते हैं और आज भी यह समुदाय लौह-अयस्क को पिघलाने के कार्य में लगे हुए हैं। ये जनजाति लोहार के नाम से भी जाने जाते हैं।
इन्हें राज्य में केल्हा,अगरिया, बिलासपुर में खण्टिया चोक व महाली असुर,अगरिया तथा रायपुर में गोड्डुक अगरिया भी कहा जाता है। ये जनजाति समुदाय मैकल पर्वत श्रृंखला के बिलासपुर क्षेत्र मे ज्यादा निवास करते हैं तथा ये छत्तीसगढ़ी का प्रयोग करते हैं। अगरिया जनजातियों पर वैरियर एल्विन का कार्य महत्वपूर्ण माना जाता है।
असुर जनजातिः-
असुर जनजाति सामान्य रूप से छोटे जनजातीय समूह है, जो अपने जातीय नाम को संस्कृत से जोड़ता है। घरों में यंे मुण्डा परिवार की असुरी भाषा का प्रयोग करते हैं। असुर जनजाति के लोग रायगढ तथा जषपुर तक ही सीमित हैं। असुरों के अनेक गांव पहाड़ों पर हीं बसे हैं। जिसके कारण इन्हें अभी तक सरकारी कल्याण योजनाओं से कोई लाभ प्राप्त नही हुआ है। इन पर अभी तक कोई महत्वपूर्ण मानव विज्ञानी कार्य भी नहीं हुए हैं।
बिरजिया जनजातिः-
बिरजिया का अर्थ होता है-जंगल की मछली। बिरजिया जनजाति के लोग अपना मूल निवास सरगुजा जिले को मानते हैं। ये मुण्डा परिवार की ‘बिरजिया’ भाषा के साथ ‘सदरी’ भाषा का प्रयोग करते हैं। इस जनजाति के लोग त्योहार के रूप में सरहुल,करमा,फगुआ तथा रामनवमी जैसे उत्सव मनाते हैं। वर्तमान समय में इस जनजातियों पर कोई ष्षोधकार्य नहीें हुआ हैं।
धनवार जनजातिः-
इस जनजाति के धनुवर,लोधा, जथा बैगा जैसे पर्याय श्ी मिलते हैं। ‘धनवार’ ष्षब्द की उत्पत्ति ‘धनुषा’ से हुआ है,जिसका अर्थ होता है धर्नुधारी। रसेल तथा हीरालाल के अनुसार,धनवार समुदाय गोण्ड या कॅंवर की हीं एक ष्षाखा है। ये जनजाति बिलासपु,रायगढ़ तथा सरगुजा जिले में निवास करती हैं। धनवर जनजाति के लोग छत्तीसगढ़ी बोली का प्रयोग करते हैं।
घुरवा जनजातिः-
घुरवा जनजाति के लोग बस्तर जिले के बस्तर,तथा सुकमा विकासखण्डों में निवास करते हैं।घुरवा जनजाति के लोग पहले अपने को परजा कहते थे। इनकी मातृ भाषा ‘परजी’ द्रविड़ भाषा परिवार से संबंध रखते हैं। ये द्वितीय भाषा के रूप में ‘हल्बी’ का प्रयोग करते हैं।
गदबा जनजातिः
- गोदावरी के आस-पास स्थित होने के कारण ये गदबा के नाम से प्रसिद्व हैं। ये अब गोदावरी के निवासी हो गए हैं तथा बस्तर जिले में निवास करते हैं। पहले ये मुण्डा परिवार के गदबा का प्रयोग करते थे, किन्तु आज के दिनों में इनकी मूल भाषा मृत हो गई है। अब ये लोग हल्बी को ही अपनी मातृभाषा मानते हैं। ऐसा माना जाता है कि अभी तक इन पर कोई ष्षोधकार्य नही हुआ है।
हल्बा जनजातिः-
ऐसा माना जाता है कि हलवाहक होने के कारण हीं इनका नाम हल्बा पड़ा। हल्बा जनजाति के लोग बस्तर तथा दुर्ग जिले में निवास करते हैं। इनकी मातृभाषा हल्बी बस्तर की सम्पर्क भाषा है। हल्बा की हीं एक अन्य ष्षाखा नागवंषी हल्बा की है, जो बस्तर,दंतेवाड़ा तथा नारायणपुर जिलों में निवास करती हैं।
कमार जनजातिः
कमार जनजातियों के अधिकतर गांव वनाच्छादित पहाड़ियों में है जो रायपुर के दक्षिण-पूर्व अंचल में निवास करते हैं। इन्हें विषेषा रूप से पहाड़ी जनजाति के नाम से भी जाना जाता है। रसेल तथा हीरालाल ने कमारों को गोण्डो की हीं एक ष्षाखा माना है। आपस मेें ये छत्तीसगढ़ी का प्रयोग करते हैं। कमारों पर ष्ष्यामाचरण दुबे, रसेल तथा हीरालाल के कार्य उल्ल्ेखनीय है।
छत्तीसगढ़ की लोककला एवं संस्कृति
खड़िया जनजातिः-
खड़िया को पालकी भी कहा जाता है। इस जनजाति के लोग पालकी ढोने का कार्य करते हैं इस कारण इन्हें खड़िया के नाम से जाना जाता है। इनका निवास स्थल रायगढ़ तथा जषपुर जिलों में हैं। मुण्डा परिवार की खडिया इनकी मातृभाषा है तथा ये सदरी भाषा का प्रयोग करते हैं। ये पूसा-पुत्री तथा करमा जैसे स्थानीय उत्सव मनाते हैं।
नगेसिया जनजातिः-
नगेसिया जनजाति को ‘किसान’ और ‘आदिवासी’ भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि नगेसिया ष्षब्द की उत्पत्ति ‘नाग’ सर्प से हुआ है। इनका निवास स्थल सरगुजा तथा रायगढ जिलों में है। नगेसिया लोग राजमोहनी देवी,साहनी गुरू, तथा संत गहिरा गुरू के समाज सुधार कार्यक्रम से बहुत प्रभावित हुए है। ये मुण्डा भाषा परिवार की बोली के साथ छत्तीसगढ़ी का प्रयोग करते हैं
कोया जनजातिः-
कोया जनजाति बस्तर के गोदावरी अंचल में निवास करते हैं तथा ये अपने आप को दोरला या कोयतूर भी कहते हैं। इन्हें गोण्ड वर्ग के अन्र्तगत हीें माना जाता हैं इसलिाए इनका पृथक जनसंख्या का उल्लेख नहीं है।
इनकी मातृभाषा द्रविण भाषा परिवार से है। ये हल्बी तथा तेलगू बोली का प्रयोग करते हैं। कोया जनजाति की तीन उपषाखाएॅं है - कोर्ला कोया,गुट्टा कोया,मेट्ंटा ।
मुड़िया जनजातिः-
मुड़िया जनजाति को बस्तर की प्रमुख जनजाति माना जाता है। मुड़िया जनजाति के लोग ठाकुर देव और महादेव की पूजा करते है। मुड़िया जनजाति के लोग विषेष रूप से माता और पूर्वजों की पूजा करते हैं। इनकी प्रमुख बोली गोण्ड़ी और हल्बी हैं। मुड़िया जनजातियों में उत्सवों की एक श्रृंखला होती है जिसे ककसार कहा जाता है।
माड़िया जनजाति:-
माड़िया जनजाति गोण्डो की उप-षाखा है। इन्हें बाइसन हार्न या देदामी माड़िया के नाम से भी जाना जाता है। मुड़िया जनजाति के लोग कांकेर,बस्तर,कोण्डागाॅंव,सुकमा,दन्तेवाडा,बीजापुर,नारायणपुर में मुख्य रूप से निवास करते हैं।
पाण्डो जनजाति:-
पाण्डो जनजाति के लोग स्वं को पाण्डवों के वंष मानतें हैंै। ये लोग मुख्य रूप से सरगुजा तथा बिलासपुर जिलों मे निवास करते हैं। ये लोग छत्तीसगढ़ी को अपनी मातृभाषा मानते हैं।
कोरबा जनजाति:-
इस जनजाति को दिहरिया और किसान कोरबा कहा जाता है। ये विषेष रूप से पहाड़ी जनजाति हैं। इनकी मातृभाषा कोरबा मुण्डा भाषा परिवार से संबंधित है। बारहवीं तक सरगुजा की राजसत्ता इन्हीं कोरबाओं की हाथ में थी। कोरबाओं की दो ष्षाखा है - पहाड़ी कोरबा और जंगली कोरबा ये मुख्य रूप से सरगुजा,रायगढ तथा बिलासपुर जिलों में निवास करते हैं।
कोल जनजाति:-
‘कोल’ एक जातीय नाम है, जो संस्कृत साहित्य में भील तथा किरात के साथ अधिकतर प्रयोग किया जाता है। तुलसीदास के ‘‘रामचरित्रमानस’’ में भी कोलों की चर्चा किया गया है।
कोड़कु जनजाति:-
कोड़कु जनजाति के लोग सरगुजा तथा रायगढ़ जिलों तक फैले हुये हैं। ‘‘कोड़कु’’ का अर्थ है - ‘ भूमि को खोदने वाला’। इनकी मातृभाषा कोरबा मुण्डा भाषा परिवार से है। कोड़कु जनजाति के लोग घर के बाहर छत्तीसगढ़ी भाषा का प्रयोग करते हैं।
पारधी जनजाति:-
पारधी जनजाति बस्तर जिले में निवास करते हैं और अपने को नाहर कहते हैं। आखेटक होने के कारण हीं इनका ये नाम पड़ा है। इनकी मातृभाषा गोण्डी है लेकिन ये लोग हल्बी तथा आर्य भाषा का प्रयोग करते हैं।
छत्तीसगढ़ की प्रमुख आदिवासी जनजातियों का पेय पदार्थ
- सल्फी - मुड़िया माड़िया
- ताड़ी - बैगा जनजाति
- हड़िया - कोरवा तथा उराव
- पेज - गांेड़ जनजाति
- कोसमा, कोसना, हड़िया - उरांव
सल्फी:-
सल्फी ताड़ कुल का एक पुष्पधारी वृक्ष है। इसको संस्कृत में ‘मोहकारी’ कहते हैं। इससे निकलने वाले मादक पेय को ‘बस्तर बियर’ के नाम से जाना जाता है। इस वृक्ष को गोंडी बोली में ‘गोरगा’ कहा जाता है, जो बस्तर के हीें बस्तरनार इलाके में ये ‘आकाष पानी’ के नाम से जाना जाता है। एक दिन में करीब 20 लीटर तक मादक रस देने वाले इस पेड़ की बस्तर की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण स्थान हैं।
ताड़ी:-
ताड़ी एक मादक पेय है जो ताड़ की विभिन्न प्रजाति के वृक्षों के रस से बनति है तथा ताड़ी अप्रैल से जुलाई माह तक ताड़ के पेड़ के फल से निकलता है। जिसका उपयोग आदिवासी करते हैं।
मड़िया पेज, माड़िया पेज:-
यह लोगों को लू की चपेट मे आने से बचाता है। आदिवासी लोग गर्मी में इसका भरपर इस्तेमाल करते हैं। माड़िया एक मोटा अनाज होता हैै। जिसके आटा को मिट़्रटी के बर्तन में रातभर भीगा कर रखा जाता है तथा सुबह पानी में चावल डालकर पकाया जाता है।
चावल पकने पर उबलते हुए पानी में मड़िया के भीगाए हुए आटे को मिलाया जाता हैै। स्थानीय हल्बी बोली में इसे पेज कहते हैं। पकने पर इसे ठण्डा करके 24 घण्टे तक सेवन किया जा सकता है।
हड़िया पेय:-
यह चावल और रानू नामक जंगली जड़ी-बूटी से बनी होती है। जंगली बूटी चैली कंदा की जड़ में पाई जाने वाले इस खास जड़ी को अरवा चावल के आटे मे कूट कर मिलाया जाता है और छोटी-छोटी गोलियां तैयार कर लिया जाता है।
हड़िया चावल के भात से बनता है और इसमें चावल के अतिरिक्त गेहूॅ और मडुवा को भी मिलाया जाता है। ज्यादातर करैनी धान के चावल को हड़िया के लिए उपयोग में लाया जाता है।
पहले चावल को पकाया जाता है। इसके बाद चावल को ठण्डा किया जाता है, फिर एक बड़े बर्तन में भात को उड़ल दिया जाता है। इस भात में रानू गोली मिला दिया जाता है।
इसके बाद किसी बर्तन से ढ़ककर फर्मेन्टेषन के लिए रख दिया जाता है। सर्दियों के मौसम में 4 दिन और गर्मियों के मौसम में कम से कम दो दिन तक चावल को एैसे हीे रहने देते हैं। समय पूरा होने के बाद चावल को घोटकर उसमें से पानी जिसे हड़िया कहा जाता है निकाल कर सेवन किया जाता हैं।
छत्तीसगढ़ की प्रमुख आदिवासी जनजातियों में विवाह पद्धतियाॅं
आदिवासी जनजातियों में एकविवाह पद्धति जिसे मोनोगैमी तथा बहुविवाह जिसे पोलीगैमी कहा जाता है ये दोनो चलन में है। लेकिन इनमें बहुविवाह सबसे ज्यादा प्रचलित है। बहुविवाह का अर्थिक स्थिति से सीधा संबंध होता है। बिंझवारों के मुखिया पांच पत्नियां भी रख सकते हैं। महिलाओं को एक पति के होते हुए दूसरा पति रखने का अधिकार नही होता है। इन जनजातियों में प्रचलित विवाह निम्न हैं -
दूध लौटावा विवाह:-
इस विवाह पद्धति में ममेरे, फुफेरे भाई-बहनों में विवाह किया जाता है। जब लड़की का विवाह कहीं और नहीं हो रहा हो तब प्रथा के अनुसार उसके पास एक विकल्प होता है कि वह अपने मामा या बुआ के लड़के से विवाह करे। इस प्रकार का विवाह अपने रिष्ते दारों के मध्य होने के कारण हीं इस विवाह का नाम दूध लौटावा विवाह पड़ा।
अपहरण विवाह या पायसोतुर विवाह:-
आदिवासी जनजातियों में अपहरण विवाह भी प्रचलित है। अपहरण विवाह का प्रचलन बस्तर के गोण्ड़ जनजातियों में प्रचलित है,जिसे पायसोतुर के नाम से जाना जाता है। किसी जमाने में अपहरण की प्रथा प्रचलित थी किन्तु आधुनिक युग में ये केवल लोकाचार बनकर रह गई है। इस प्रकार के विवाह में लड़के को पूरे गांव वालों को जाति भोज खिलाना पड़ता था, तभी समाज उन्हें स्वीकार करता था।
सेवा विवाह या लमसेना विवाह:-
इस विवाह का मतलब होता है कि अगर किसी लड़के को किसी लड़की से विवाह करना होता है ऐसी स्थिति में लड़की या लड़की के मायके वालो द्वारा लड़के के साथ विवाह करने के लिए एक मूल्य निर्धारित कर दिया जाता हैै। अगर लड़का पक्ष द्वारा उस मूल्य को चुका दिया जाता है तो लड़का और लड़की का विवाह करा दिया जाता है,किन्तु वह मूल्य चुकाने में असमर्थ हो जाता है ,तब लड़के को अपने होने वाले ष्ष्वसुर के घर जाकर पांच सालों तक काम करना होता है।
इस सेवा के दो पहलू होते हैं -
पहला यह है कि भावी दमांद श्रम के द्वारा ष्ष्वसुर की आय में वृधि करता है, तथा दूसरा वह अपने व्यवहार के द्वारा ष्ष्वसुर के घर के सभी सदस्यों का दिल जीतने का प्रयास करता है। इसे लड़के का लमसेना जाना कहा जाता है।
गन्र्धव विवाह या पोटा विवाह:-
इस विवाह को पोटा विवाह के नाम से भी जाना जाता है। इस विवाह कि ऐसी प्रथा है कि जब स्त्री या पुरूष अपनी इच्छा से एक दूसरे का वरण कर लेते हैं या एक-दूसरे का साथ निभाने का निष्चय कर लेते हैं तो इस प्रकार के विवाह को गन्र्धव विवाह कहा जाता है।
गोण्ड़ों की उपजाति परजा में गन्र्धव विवाह का प्रचलन आम बात है। परजा लोगों में नियम है कि यदि कोई युवती विवाह से पूर्व ही गर्भवती हो जाती है तो, उसका विवाह संबंधित युवक से विधिपूर्वक कर दिया जाता है।
क्रय विवाह या पारिंगधन विवाह:-
छत्तीसगढ़ की अधिकांष जनजातियों में वधू मूल्य देकर पत्नी प्राप्त करने की प्रथा प्रचलित हैं,जिसे पारिंगधन विवाह कहा जाता है। कुछ जनजातियों मे धन के बदले अथवा धन के साथ जानवर देने की प्रथा भी है। बिलासपुर सम्भाग के खेरनार आदिवासियों में वधू मूल्य चुकाने की प्रथा प्रचलित है।
हठ विवाह:-
हठ विवाह में युवती अपनी पसंद के युवक के यहाॅं जबरदस्ती घुंस जाती है और युवक पक्ष द्वारा युवती को डराने-धमकाने पर भी युवती नहीं भागती है, तो दोनों परिवारों की सहमति से दोनों का विवाह करा दिया जाता है।
विनिमय विवाह या गुरावण्ट विवाह:-
जब दो परिवार बिना वधू मूल्य चुकाए आपस में लड़कियों का आदान-प्रदान कर लेते है अर्थात पहले घर की लड़की का विवाह दूसरे घर मे तथा दूसरे घर की लड़की का विवाह पहले घर में कर दिया जाता है तो इस प्रकार के विवाह को ‘‘विनिमय विवाह’’ या ‘‘गुरावण्ट’’ विवाह कहा जाता है।
विधवा विवाह या अर-उतो विवाह:-
जब किसी स्त्री का पति किसी कारण वष मर जाता है तो उस स्त्री को विधवा कहा जाता है। उसे अपने आगे का जीवन चलाने के लिए किसी दूसरे पुरूष से विवाह करना पड़ता हैै। इस प्रकार के विवाह में कम खर्च होता है और इस विधवा विवाह को जनजातिय समाज मेें अर-उतो कहा जाता है। कुछ जनजातियों में स्त्री के पति के मर जाने पर देवर द्वारा बिना वधू मूल्य चुकाए हीं भाभी के साथ ष्षादी करने की प्रथा प्रचलित है।
छत्तीसगढ़ की प्रमुख आदिवासी जनजातीय युवागृह ‘‘घोटुल’’
बस्तर के मुड़िया जनजातियों की संस्था घोटुल सामाजिक और धार्मिक जीवन का केन्द्र बिन्दु है और इन्हीें तत्वों के पोषण के कारण यह संस्था विष्व की सर्वाधिक विकसित और अनुषासित संस्था है। लेकिन इसका सही नाम गोटुल है। यह एक संयुक्त गोण्डी ष्षब्द है।
गो का अर्थ है -गोंगा अर्थात दुःख और क्लेष निवारण ष्षक्ति,जिसे वि़द्या कहा जाता है। टुल का अर्थ है-ठिया या ठाना, जिसे स्थल कहा जाता है। इस प्रकार गोटुल का अर्थ गोंगा स्थल अर्थात विद्या स्थल होता है।
मुड़िया घोटुल एक युवागृह होता है, जिसके सदस्य केवल आदिवासी होते हैं। घोटुल नृत्य घोटुल का सबसे महत्वपूर्ण भाग होता है, जिसका उद़देष्य केवल पूजा और आराधना होता है, जो देवता लिंगो को समर्पित होती है। ये नृत्य गान कर अपने आराध्य को प्रसन्न करते हैंै, ताकि इनके गांव में अच्छी फसल हो, सम्पूर्ण गांव स्वच्छ और रोग मुक्त हों। मान्दर इस नृत्य का प्रमुख वाद्य यंत्र होता है, इस कारण इस नृत्य को मान्दरी नृत्य भी कहा जाता है।
छत्तीसगढ़ की प्रमुख आदिवासी जनजातीय युवागृह ‘‘धूमकुरिया’’
छत्तीसगढ़ की उराॅंव जनजाति में मुड़ियाओं के घोटुल की तरह हीं युवागृह होता है, जिसे धूमकुरिया कहा जाता है। इनके निवास स्थान छोटे होते हैं। गांव मेें एक अलग मकान बना होता है, जिसमें अविवाहित लड़के और लड़कियां रहते हैं। इस मकान में नृत्य गायन होता है।
धूमकुरिया की सदस्यता लेने हेतु लड़कों की आयु 9-10 वर्ष तक होती है। धूमकुरिया के सदस्यों को तीन वर्गो में रखा जाता है। इनमें 13 वर्ष से कम आयु के सदस्य पुना जोंरवार, 13-18 वर्ष के मध्य की आयु के सदस्य मजथुरियां जोंरवार तथा इससे अधिक उम्र के सदस्य धाॅंगर कहे जाते हैंै। धूमकुरिया के वरिष्ठ सदस्य मूखिया का चुनाव करते हैं, जिसे धाॅंगर महतो कहा जाता है।
बस्तर का एैतिहासिक दषहरा
बस्तर का एैतिहासिक दषहरा पूरे विष्व में प्रसिद्व है। दषहरे का त्योहार असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीकात्मक त्यौहार है,जिसे विजय पर्व भी कहा जाता है, लेकिन बस्तर का दषहरा पर्व यहां के राजघराने की अधिष्ठात्री कुलदेवी तथा आदिवासियों की आराध्य देवी माॅं दन्तेष्वरी को केन्द्र मानकर मनाया जाता है।
छत्तीसगढ़ की प्रमुख आदिवासीयों के संबंध में महत्वपूर्ण तथ्य
- छत्तीसगढ़ की अधिकांष जनजातीयाॅं प्रोटो आॅस्ट्रोलाॅयड प्रजाति की हैं।
- खैरवार जनजाति खैरवृक्ष से कत्था निकालने का काम करती है।
- मुड़िया जनजाति बस्तर की प्रमुख जनजाति है। ये ठाकुर देव और महादेव की पूजा करते हैं।
- गोण्ड मध्य भारत का एक विषाल जनजात समूह है,जिनके नाम से मध्य युग मे गोण्डवाना को प्रसिद्वि प्रप्त हुई है।
- नगेसिया जनजाति की जातिय नाम की उत्पत्ति नाग यानि सर्प से हुई है।
देवी - देवता
- गोण्ड़ दूल्हादेव की पूजा करते हैं।
- बैगाा जनजाति बूढ़ादेव तथा ठाकुर देव की आराधना करते हैं।
- कोरवा जनजाति सूर्य, सर्प तथा खुड़िया रानी की आराधना करते हैं।
- अबूझमाड़िया प्राकृति की पूजा करते हैं।
- उरांव जनजाति सरना दवी तथा धर्मेष की पूजा करते हैं।
- कमार जनजाति दूल्हा देव के अलावा छोटी माई तथा बड़ी माई की पूजा करते हैं।
- भतरा षिकार देवी की आराधना करते हैं।
- मुड़िया अंगादेव की आराधना करते हेै।
- बिंझवार विंध्वासिनी देवी की
युवा गृह
- उरांव जनजाति का युवागृह - धुमकुरिया
- बिरहोर जनजाति का युवागृह - गितिओना
- भुइंया जनजाति का युवागृह - रंगभंग
- भरिया जनजाति का युवागृह - धासरवासा
- परजा जनजाति का युवागृह - धगबाक्सर
नृत्य
- माड़िया जनजाति का- गौर नृत्य जो गोंचा पर्व पर होता है।
- मुड़िया या मुरिया जनजाति का - ककसार, घोटुल पाटा, मांदरी ,रेलों, गेंड़ी डिंटोम तथा एबालतोर नृत्य
- बैगा जनजाति का - करमा, अटारी, बिल्मा, सैला नृत्य।
- कोरकु जनजाति का - थापटी तथा ढांढल
- कंवर जनजाति का - बार नृत्य
- उरांव जनजाति का - सरहुल नृत्य
- भरिया जनजाति का - भड़म ष्षैतम नृत्य
- धुनवा जनजाति का - परब नृत्य
प्रमुख पुस्तक
- द भील - पी वी नायक
- द कमार - ष्ष्यामाचरण दुबे
- द बिरहोर - एस सी राय
- द बैगास
- द गौर
- द अगरिया
- द मुड़िया एंड देयर घोटुल - वेरियर एल्विन
- द ट़ाइबल इकाॅनमी - दयाषंकर नाग
FAQ:-
1 छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजाति कौन सी है़?
उत्तर:- गोण्ड जनजाति
2 छत्तीसगढ़ की सबसे पिछड़ी जनजाति कौर सी है?
उत्तर:- बिरहोर जनजाति
3 छत्तीसगढ़ की सबसे षिक्षित जनजाति कौन सी है?
उत्तर:- उरांव जनजाति
4 छत्तीसगढ़ की कौन सी जनजाति आखेट का कार्य करती है?
उत्तर:- नगेसिया जनजाति
5 छत्तीसगढ़ की कत्था बनाने वाली जनजाति कौन है?
उत्तर:- खैरवार जनजाति
6 छत्तीसगढ़ में कितने प्रकार की जनजाति पाई जाति है?
उत्तर:- 42 प्रकार की जनजाति
7 कहाॅं का मड़ई सर्वाधिक प्रसिद्व है?
उत्तर:- नारायणपुर का मड़ई
निष्कर्ष :-
आर्टिकल पढ़ने के लिए आपका धन्यवाद! उम्मीद करते हैं कि इस आर्टिकल को पढ़कर आप को कुछ हेल्प हुई होगी। इस आर्टिकल में छत्तीगढ़ के प्रमुख जनजातियों का उल्लेख किया गया है तथा प्रमुख पेय पदार्थ, नृत्य, युवागृह आदि का उल्लेख किया गया है, जो कि प्रतियोगी परीक्षा की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।