छत्तीसगढ़ के प्रमुख पर्व ,तीज एवं त्यौहार/तिहार/मेले/Chhattisgarh Tyohar GK
छत्तीसगढ़ के प्रमुख त्योहार एवं मेले तथा किन जनजातियों के द्वारा मनाया जाता है। इन सभी सवालों का जवाब इस लेख में मिलने वाला है। उसके लिए आपको इस लेख को अच्छे से पढ़ना है क्योंकि प्रतियोगी परीक्षाओं में छत्तीसगढ़ के जनजातियों के त्योहारों से सम्बंधित प्रश्न पूछे जाते हैं।इस लेख में सभी महत्वपूर्ण पर्व व मेले को To The Point कवर करने का प्रयाश किया गया है।
1.हरेली पर्व
हरेली पर्व किसानों का पर्व है इस त्यौहार को धान बुवाई के बाद मनाया जाता है। हरेली त्यौहार में सभी प्रकार के लौह उपकरणों और औजारों की पूजा की जाती है। हरेली पर्व को सावन माह की अमावस्या को मनाया जाता है ।
इस त्यौहार को छत्तीसगढ़ में प्रथम पर्व के रूप में मनाया जाता है। इस दिन बच्चे बाँस की गेड़ी का प्रयोग करते हैं और गेड़ी की सहायता से वे मनोरंजक खेल- खेलते हैं। हरेली त्यौहार के दिन घोरण्डी देव को प्रसन्न किया जाता है तथा इस दिन जादू टोने का भी मान्यता है।
नकारात्मक शक्तियों से सुरक्षा के लिए घर के बाहरी दीवारों में सवनाही का अंकन किया जाता है तथा गांव में नारियल फेंक प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है।
2.भोजली पर्व
भोजली पर्व को मित्रता पर्व, फूल पर्व आदि नामों से जाना जाता है । इस पर्व का आयोजन भाद्र मास को किया जाता है जो रक्षाबंधन के दूसरे दिन पड़ता है। इस पर्व के दिन लगभग 1 सप्ताह पूर्व बोए गए गेहूं, चावल आदि के पौधे रूपी भोजली का विसर्जन किया जाता है। इस पर्व के मुख्य गीत है -
"देवी गंगा देवी गंगा लहर तिरंगा"
इस गीत में गंगा शब्द का प्रयोग एक से अधिक बार किया गया है।
3.हलषष्ठी हरछठ खमरछठ
इस पर्व को भाद्र मास की षष्ठीको कृष्ण पक्ष को मनाया जाता है । इस पर में विवाहित महिलाएं भूमि पर कुंड बनाकर शिव - पार्वती की पूजा करती है और अपने पुत्र की लंबी आयु की कामना करती है तथा पसहर चावल का उपयोग करती है।
4. छेरछेरा पर्व
यह पर्व पौष माह के पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है इसे पूस- पुन्नी भी कहते हैं । इस दिन बच्चे नई फसल के धान मांगने निकलते हैं तथा लड़कियां सुआ नृत्य करती है।सुआ नृत्य गोंड महिलाओं में अत्यधिक प्रचलित है। बच्चे नई फसल के धान मांगते समय घर - घर मे जाकर
"छेरछेरा- छेरछेरा कोठी के धान ला हेर - हेरा"
शब्दों का प्रयोग करते हैं।
5. पोला पर्व
पोला पर्व को भाद्र मास की अमावस्या को मनाया जाता है। यह पर्व मुख्य रूप से कृषकों द्वारा मनाया जाता है। गांव में बैलों को सजाकर बैल- दौड़ प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है। इस दिन बच्चे मिट्टी के बैल बनाकर खेलते हैं ।
6. गौरा पर्व
इस पर्व को कार्तिक माह में मनाया जाता है इस अवसर पर स्त्रियां शिव- पार्वती की पूजा करती हैं तथा अंत में उनकी प्रतिमाओं का विसर्जन कर देती हैं।
7. गोवर्धन पूजा
गोवर्धन पूजा को कार्तिक माह में दीपावली के दूसरे दिन गोधन की समृद्धि हेतु मनाया जाता है। इस त्यौहार के दिन गोबर के विभिन्न आकृतियां बनाई जाती है तथा उसे पशुओं के ख़ुरों से कुचलवाया जाता है।
8. तीजा पर्व
तीजा पर्व भादों माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को विवाहित महिलाओं के द्वारा अपने पति की लंबी आयु की कामना करने के लिए मनाया जाता है। जबकि अरवा तीज वैशाख माह में अविवाहित महिलाओं के द्वारा अपने होने वाले पति कि लंबी आयु की कामना करने हेतु किया जाता है।
9. मेघनाथ पर्व
मेघनाथ पर्व गोंड जनजातियों के द्वारा फाल्गुन माह में मनाया जाता है। गोंड जनजाति के लोग रावण के पुत्र मेघनाथ को अपना सर्वोच्च देवता मानते हैं और उसकी पूजा अर्चना करते हैं।
10. लारूकाज
लारूकाज गोंड़ जनजातियों का पर्व है। इसमें लारू का अर्थ " दूल्हा" तथा काज का अर्थ "अनुष्ठान" होता है। इस प्रकार यह एक विवाह उत्सव है, जिसे गोंड़ जनजातियों के द्वारा नारायण देव के सम्मान में मनाया जाता हैं।
11. सरहुल पर्व
सरहुल पर्व उरांव जनजातियों का महत्वपूर्ण त्यौहार होता है। सरहुल पर प्रतीकात्मक रूप से सूर्य देव और धरती माता का विवाह रचाया जाता है तथा इस पर्व में मुर्गे की बलि देने की प्रथा भी प्रचलित है। इस पर्व को अप्रैल (चैत्रमास) के प्रारंभ में साल वृक्ष में फूल आने पर मनाया जाता है।
12. करमा पर्व
यह त्यौहार भाद्र मास में उराँव जनजातियों के द्वारा हरियाली आने की खुशी में मनाया जाता है। जब धान रोकने के लिए तैयार हो जाता है तब यह उत्सव मनाया जाता है और करमा नृत्य किया जाता है। करमा नृत्य मुख्यतः उरांव, बैगा, गोंड़ आदि जनजातियों का महोत्सव है।
13. मडई त्यौहार
गोंड़ एवं उसकी सभी उप जातियों में मड़ई का विशेष महत्व है। मड़ई का आयोजन फसल कटाई के पश्चात बस्तर के विभिन्न स्थानों पर जनवरी से अप्रैल तक मड़ई का आयोजन किया जाता है। राजनांदगांव जिले में भी मड़ई का आयोजन किया जाता है। लेकिन नारायणपुर का मड़ई सर्वाधिक प्रसिद्ध है।
मड़ई एक मेला मात्र ना होकर एक धार्मिक , आर्थिक, समाजिक एवं सांस्कृतिक आयोजन होता है। मड़ई के प्रथम दिन को देवता मड़ई कहा जाता है तथा दूसरे दिन को गुदरी या बांसी मड़ाई कहते हैं। मडई में मुख्य रूप से "अंगादेव "की पूजा की जाती है तथा इस दौरान एबालतोर नृत्य का आयोजन किया जाता है।
14. दशहरा
दशहरा पर्व को बस्तर में दंतेश्वरी देवी की आराधना के रूप में मनाया जाता है। बस्तर के जगदलपुर में इस पर्व का आयोजन 75 दिनों तक चलता है। दशहरा पर्व का प्रारंभ पाठ जात्रा के रूप में हरेली अमावस्या से शुरू होता है। इसे प्रारंभ करने का श्रेय काकतीय शासक पुरुषोत्तम देव को जाता है।
जनश्रुति के अनुसार बस्तर के चौथे काकतीय नरेश पुरुषोत्तम देव ने स्वयं भगवान जगन्नाथ के दर्शन के लिए चित्रकूट से जगन्नाथ पुरी की यात्रा पैदल चलकर की थी जिससे प्रसन्न होकर भगवान जगन्नाथ जी ने मंदिर के पुजारी के स्वप्न में राजा पुरषोत्तम देव को रतपति की उपाधि प्रदान की थी तथा राजा की भक्ति भावना से प्रसन्न होकर भगवान जगन्नाथ जी ने मां सुभद्रा देवी का रथ राजा पुरषोत्तम देव को भेंट स्वरूप प्रदान किया था। उसी समय से ही लहूरा गजपति की उपाधि बस्तर राजवंश में प्रशस्ति के साथ जुड़ गई।
रथ के 16 चक्के थे जिसे मां दंतेश्वरी की आज्ञा अनुसार दो भागों में बांट दिया गया । जिसमें 4 चक्के वाला फूल रथ तथा 12 चक्के वाला विजय रथ के नाम से प्रतिवर्ष दशहरा के समय उपयोग किया जाता है। जब राजा पुरी धाम से अपनी राजधानी चक्रकोट जो कि प्राचीन बस्तर है वहां लौटे तभी से गोंचा पर्व जिसे रथयात्रा कहा जाता है तथा दशहरा पर्व में रथ चलाने की परंपरा प्रारंभ हुई।
रथ के लिए प्रथम लकड़ी पास के गांव पंडरीपानी से लाकर राजमहल के सिंह द्वार के पास पूजा अर्चना कर विशाल रथ बनाने का कार्य जाड़ उमरगांव के पारंपरिक लोक कलाकारों द्वारा की जाती है। दशहरे के दिन मारिया और धुरवा जनजाति के लोगों द्वारा रथ को चुराकर कुम्हड़ा कोट नामक स्थान पर छोड़ दिया जाता है।
तत्पश्चात देवी की पूजा की जाती है और फिर रथ को वापस देवी मां दंतेश्वरी के मंदिर पर लाया जाता है। पूरी रात चलने वाले इस समारोह में हजारों आदिवासी रथ को खींचते हुए मां दंतेश्वरी के मंदिर में लाते हैं। नवरात्रि का अंतिम दिन नवाखानी के नाम से जाना जाता है। इस विशेष दिन से ही नई फसल की पैदावार का उपयोग शुरू किया जाता है।
बस्तर में दशहरा पर्व के 5 चरण होते हैं :-
- 1काछन गुढी
- 2 जोगी बिठाना (मंदिर में कलश स्थापना)
- 3 गोंचा
- 4 मुड़िया दरबार
- 5 देवी विदाई
अन्य पर्व
- माटी तिहार चैत्र माह में मनाया जाता है बस्तर में यह दीपावली के पश्चात मनाया जाता है जिसमें पृथ्वी की पूजा की जाती है।
- ककसार पर्व मुरिया आदिवासियों का महत्वपूर्ण पर्व है । ककसार पर्व के दौरान हीं अविवाहित युवक - युवती अपने जीवनसाथी का चुनाव करते हैं।
- बस्तर अंचल में दीपावली के दूसरे दिन गौवंशी पशुओं को खिचड़ी खिला कर दीयारी पर्व का आयोजन किया जाता है।
- हरदिली पर्व गोंड़ जातियों के द्वारा मनाया जाता है।
- गंगा दशमी जेठ माह में मनाया जाता है। गंगा के पृथ्वी पर अवतरण के उपलक्ष पर सरगुजा क्षेत्र में यह पर्व मनाया जाता है।
- खामाखायी यह पर्व बस्तर के धुरवा जनजातियों द्वारा आम फलने की खुशी में मनाया जाता है।
छत्तीसगढ़ के प्रमुख मेले
माघ पूर्णिमा से शिवरात्रि तक चलने वाले मेले
1. राजिम मेला
2. चम्पारण्य मेला - रायपुर
3. शिवरीनारायण का मेला
4. दामाखेड़ा का मेला - बलौदाबाजार
5. सिहावा का प्राणेश्वर मेला - धमतरी
6. सिरपुर का मेला - महासमुंद
7. रतनपुर का मेला - बिलासपुर
8. मल्हार का मेला - बिलासपुर
महाशिवरात्रि में लगने वाले मेले
1.दशरंगपुर का मेला - राजनांदगांव
2. नरबदा मेला। - राजनांदगांव
3. मौहार मेला - राजनांदगांव
चैत्र माह में लगने वाले मेले
1. भोरमदेव का मेल। - कवर्धा (चैत्र माह रामनवमीं में)
2. खल्लारी का मेला - महासमुंद (चैत्र पूर्णिमा में)
3. डोंगरगढ़ का मेला - चैत्र माह में