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छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास - Ancient history in hindi || CG History

छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास - Ancient history in hindi || CG History


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Ancient history in hindi
छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास - Ancient history in hindi || CG History 

दोस्तों धान का कटोरा कहा जाने वाला छत्तीसगढ़ सदियों से आर्य और अनार्य संस्कृतियों का संगम स्थल रहा है।  कई स्रोतों से पता चलता है कि छत्तीसगढ़ का इतिहास मौर्य काल से प्राचीन नहीं है। लेकिन  महाकाव्य जैसे रामायण, महाभारत आदि से प्राप्त तथ्यों के अनुसार छत्तीसगढ़ कम से कम त्रेता युग से ही भारतवर्ष की राजनीतिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों से किसी न किसी रूप में संबंध रहा है। आईए छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास - Ancient history in hindi || CG History के बारे में जानते हैं -



प्रागैतिहासिक काल

ऐसी कल जिसकी कोई लिखित साक्ष्य प्राप्त नहीं हुए हैं तथा उस समय मानव की सभ्यता प्रारंभिक रूप में थी उस कल को प्रागैतिहासिक काल कहा जाता है। प्रागैतिहासिक शब्द मानव इतिहास की उस अवधि के लिए प्रयुक्त होता है जिसमें लेखन की व्यवस्था नहीं थी इसके अनुसार आदिकालीन समाज के काल को पूर्व इतिहास कल कहते हैं।


सिंघनपुर की गुफा एवं शैलचित्र


  • सिंघनपुर गुफा के चित्रों की चित्रकारी गहरे लाल रंग से हुई है। सिंघनपुर के शैलचित्र विश्वविख्यात है।
  • इन चित्रों में चित्रित मनुष्य की आकृतियाँ कहीं तो सीधी और डण्डेनुमा है और कहीं सीढ़ीनुमा 
  • इस काल में लोगों को लेखन की जानकारी नहीं थी, अतः इस समाज की जानकारी किसी लिखित अभिलेख के आधार पर नहीं, बल्कि पुरातत्त्व की सहायता, औजार व अन्य शिल्प के आधार पर प्राप्त की जाती है।
  • आदिमानव के पास जीवन-यापन के बहुत कम साधन थे। 
  • धीरे-धीरे मानव मस्तिष्क का विकास हुआ और वह अपने ज्ञान को बढ़ाने लगा। 
  • प्रकृति ने उसे जो साधन दिए थे, उसने उनका उपयोग ठीक से करना आरम्भ कर दिया। इस स्थिति में पहुँचने के लिए उसे काफी लम्बा समय लग गया।
  • इस दौरान अपने पत्थरों को नुकीला कर औजार और हथियार बनाना सीख लिया। 
  • वनों से आच्छादित छत्तीसगढ़ के पर्वत और चट्टानों पर प्राचीन काल को विभिन्न कला के रूप आज भी कहीं-कहीं दिखाई पड़ते हैं।
  • शैलचित्र प्राचीन मानवीय सभ्यता के विकास को प्रारम्भिक रूप से स्पष्ट करते है। 
  • शैलचित्र मानव मन के विचारों को व्यक्त करने के माध्यम थे। इससे पता चलता है कि उन्हें चित्रकला का प्रारम्भिक ज्ञान था।



वैदिक काल


 वैदिक सभ्यता की जानकारी देने वाले ग्रन्थ ऋग्वेद में छत्तीसगढ़ से सम्बन्धित कोई जानकारी नहीं मिलती है। 'ऋग्वेद' में विंध्य पर्वत एवं नर्मदा नदी का उल्लेख नहीं है।


 उत्तर वैदिक काल में देश के दक्षिण भाग से सम्बन्धित विवरण मिलने लगते हैं। 


शतपथ ब्राह्मण में पूर्व एवं पश्चिम में स्थित समुद्रों का उल्लेख मिलता है।


 कौथितिकीय उपनिषद् में विंध्य पर्वत का उल्लेख प्राप्त होता है। उत्तर वैदिक साहित्य में नर्मदा का उल्लेख रेवा के रूप में मिलता है।


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महाकाव्य काल


वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण के अनुसार, राम की माता कौशल्या राजा भानुमन्त की पुत्री थी। कोशल खण्ड नामक एक अप्रकाशित ग्रन्थ से जानकारी मिलती है कि विंध्य पर्वत के दक्षिण में नागपत्तन के पास कोशल नामक एक शक्तिशाली राजा था।


इसके नाम पर ही इस क्षेत्र का नाम कोशल पड़ा था। राजा कोशल के राजवंश में भानुमन्त नामक राजा हुआ, जिसकी पुत्री कौशल्या का विवाह अयोध्या के राजा दशरथ से हुआ था।


 भानुमन्त का कोई पुत्र नहीं था, अतः कोशल (छत्तीसगढ़) का राज्य राजा दशरथ को प्राप्त हुआ। इस प्रकार राजा दशरथ के पूर्व ही इस क्षेत्र का नाम 'कोशल' हो गया था।



महाजनपद काल


भारतीय इतिहास में छठी शताब्दी ईसा पूर्व का विशेष महत्त्व है, क्योंकि इसी समय से भारत का व्यवस्थित इतिहास मिलता है।


 इसके साथ ही यह बुद्ध एवं महावीर का काल है।


 इस काल में देश अनेक जनपदों एवं महाजनपदों में विभक्त था।


 छत्तीसगढ़ का वर्तमान क्षेत्र भी (दक्षिण) कोशल के नाम से एक पृथक् प्रशासनिक इकाई था, मौर्य काल से पूर्व के सिक्कों की प्राप्ति से इस अवधारणा की पुष्टि होती है।


अवदान शतक नामक एक ग्रन्थ के अनुसार, महात्मा बुद्ध दक्षिण कोशल आए थे तथा लगभग तीन माह तक यहाँ की राजधानी में उन्होंने प्रवास किया था।


ऐसी जानकारी बौद्ध यात्री ह्वेनसांग के यात्रा वृत्तान्त से भी मिलती है।



मौर्य काल


प्राचीन पुराणों और शिलालेखों से ज्ञात होता है कि इस प्रदेश पर बौद्ध राजाओं का आधिपत्य था।


 इस क्षेत्र का इतिहास स्वावलम्बी न होकर बहुत कुछ परावलम्बी है, क्योंकि यहाँ बहुधा ऐसे ही लोगों ने शासन किया है।


मौर्य सम्राट अशोक ने दक्षिण कोशल की राजधानी में स्तूप का निर्माण करवाया था। इस काल के दो अभिलेख सरगुजा जिले में  मिलते हैं।


 इससे यह प्रमाणित होता है कि दक्षिण कोशल (छत्तीसगढ़) में मौर्य वंश का शासन रहा है , जिसका काल लगभग 323 से 184 ई. पू. के बीच रहा है।



उत्तर मौर्य काल


  • मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद भारत के विभिन्न भागों में चार प्रमुख राजवंशों का उदय हुआ, जो इस प्रकार हैं
  • मगध राज्य, जहाँ शुंगों का प्रभाव था।
  •  कलिंग का राज्य, जहाँ चेदि वंश की सत्ता कायम हुई।
  • दक्षिण-पथ में सातवाहन का राज्य ।
  • पश्चिम भाग में यवनों के प्रभाव का उदय ।


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सातवाहन वंश


  • मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात् दक्षिण भारत में सातवाहन राज्य की स्थापना हुई। दक्षिण कोशल का अधिकांश भाग सातवाहनों के प्रभाव क्षेत्र में था।
  • इस वंश के शासक अपने को दक्षिण-पथ (दक्षिणा पथ स्वामी) का स्वामी कहते थे।
  •  इस वंश में अनेक शासक साम्राज्यवादी प्रवृत्ति के थे। 
  • शातकर्णी प्रथम ने अपने राज्य का विस्तार जबलपुर तक किया। 
  • इस प्रकार त्रिपुरी सातवाहनों के प्रभाव में आ गया।
  • सातवाहनकालीन सिक्के बिलासपुर जिले में पाए गए हैं। 
  • इनके शासनकाल में आर्य संस्कृति का विस्तार दक्षिण में व्यापक रूप से हुआ। 
  • यह काल 200 से 60 ई. पू. के मध्य का है।
  •  सातवाहन राजा अपीलक की एकमात्र मुद्रा रायगढ़ जिले के बालपुर नामक स्थल से प्राप्त हुई है।
  • रायगढ़ जिले के बालपुर एवं बिलासपुर जिले के मल्लार में सातवाहन शासक अपीलक की मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं।
  • सातवाहन शासकों की प्राप्त मुद्राएँ, शिलालेख एवं काष्ठ स्तम्भलेख राज्य में सातवाहन राजाओं की अधिसत्ता को प्रमाणित करते हैं।



कुषाण वंश


कुषाणवंशीय शासक विक्रमादित्य व कनिष्क के कई सिक्के छत्तीसगढ़ भू-भाग जिस प कुषाणवंशीय राजाओं का अधिपत्य था, से प्राप्त हुए हैं।


बिलासपुर जिले में कुषाणवंशीय राजाओं के ताँबे के सिक्के प्राप्त हुए हैं।


 इन सिक्कों से प्रमाणित होता है कि राज्य में कुषाणों की सत्ता रही होगी।



गुप्त काल


उत्तर भारत में शुंग एवं कुषाण सत्ता के पश्चात् गुप्त वंश ने राज्य किया तथा दक्षिण भारत में सातवाहन शक्ति के पराभव के पश्चात् गुप्त वंश की स्थापना हुई।


चौथी सदी में समुद्रगुप्त, गुप्त वंश का एक अत्यन्त ही प्रतिभाशाली और साम्राज्यवादी शासक हुआ। 


 उसने सम्पूर्ण आर्यावर्त को जीतने के बाद दक्षिण-पथ की विजय यात्रा की। उसने दक्षिण कोशल के  शासकों महेन्द्र और व्याघ्रराज (बस्तर का शासक) को पराजित कर आगे प्रस्थान किया।  इन शासकों ने गुप्त शासकों की अधीनता स्वीकार कर अपने-अपने क्षेत्रों पर शासन किया।



राजर्षितुल्य वंश


 पाँचवीं सदी के आसपास दक्षिण कोशल में राजर्षितुल्य नामक नाग वंश का शासन था।


 आरंग से प्राप्त ताम्रपत्र अभिलेख से दक्षिण कोशल में राजर्षितुल्य के राजाओं का शासन करना प्रमाणित होता है।


प्राप्त ताम्रपत्र से इस वंश के कुल 6 राजाओं के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।


इसमें सूर, दायित प्रथम, विभीषण, भीमसेन प्रथम, दायित वर्मन तथा भीमसेन द्वितीय थे।



नल वंश


 नल वंश की विशेष रूप से बस्तर क्षेत्र में सत्ता स्थापित होने की जानकारी प्राप्त होती है।


राजिम से प्राप्त अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि नल वंश का प्रारम्भ नल नामक राजा से हुआ। राज्य में नल वंश का अस्तित्व सारंगढ़ स्थल से है।


कोण्डागाँव के समीप नलवाड़ा ग्राम से प्राप्त सिक्कों से यह प्रतीत होता है कि बस्तर पर नल वंश का शासन 400-450 ई. रहा होगा।


उत्कीर्ण लेखों व प्राप्त मुद्राओं में भवदत्त वर्मा, भहारक व स्कन्द वर्मा का नाम ज्ञात होता है।



शरभपुरीय वंश


 इस वंश का संस्थापक शरभ नामक राजा था। शरभ का उत्तराधिकारी उसका पुत्र नरेन्द्र हुआ, जिसके काल का ताम्रपत्र कुरूद में प्राप्त हुआ। उत्तरकालीन गुप्त शासक भानुगुप्त के एरण स्तम्भलेख (गुप्त सम्वत् 610 ई.) में शरभराज का उल्लेख है।


प्रसन्नमात्र इस वंश का प्रतापी राजा था, जिसके समय के सोने के सिक्के छत्तीसगढ़ के कई स्थानों से मिले है। इस वंश का अन्तिम नरेश प्रवरराज था।


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श्रीपुर के पाण्डु वंश अथवा सोम वंश


शरभपुरीय वंश के शासन की समाप्ति के बाद पाण्डुवंशियों ने दक्षिण कोशल में अपने साम्राज्य की स्थापना की। इन्होंने सिरपुर को अपनी राजधानी बनाया। ये अपने को सोमवंशी पाण्डव भी कहते थे। अभिलेखो में इन्हें पाण्डु वंश भी कहा गया है।


सम्भवतः सोनपुर-बलागीर क्षेत्र में राज्य करने वाले सोमवंशियो से भिन्नता प्रकट करने के लिए इनका उल्लेख पाण्डु वंश के रूप में किया जाता है साथ ही मैकाल में इस राजवंश को पाण्डु वंश तथा दक्षिण कोशल में इन्हें सोमवंशी भी कहा गया है।


 कालींजर के शिलालेख में इस वंश के संस्थापक का नाम उदयन मिलता है।


 तीवरदेव नामक शासक ने बाद मे कोशल और उत्कल को जीतकर कोशलाधिपति की उपाधि धारण की। इसी वंश में हर्षगुप्त नामक शासक हआ।


सोम वंश


सोम वंश के शिवगुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी उसका पुत्र महाभवगुप्त प्रथम हुआ


इसने कौशलेन्द्र और त्रिकालंगाधिपति (त्रिकलिंग का अधिपति) की उपाधि धारण की थी। 


इसने सुवर्णपुर, मुरसीम, आराम आदि स्थानों में राजधानी परिवर्तित की थी। 


महाशिवगुप्त का उत्तराधिकारी ययाति प्रथम था।



नाग वंश


छत्तीसगढ़ राज्य में नाग वंश की दो शाखाओं के शासन का उल्लेख मिलता है


(i) कवर्धा का फणीनाग वंश


(ii) बस्तर का छिन्दक नाग वंश



बस्तर का छिन्दक नाग वंश

बस्तर का प्राचीन नाम चित्रकूट या भ्रमरकोट था।


 छिन्दक नाग वंश के प्रथम शासक थे, इस शासक का उल्लेख ऐरीकोट से प्राप्त शक सम्वत् 445 (1023 ई.) के शिलालेख में मिलता है। इस वंश की राजधानी भोगवतीपुरी थी।


छिन्दक नागों में सबसे प्रसिद्ध राजा सोमेश्वर प्रथम था। सोमेश्वर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र कन्हरदेव 1111 ई. में सिंहासन पर बैठा। 


कन्हरदेव के पश्चात् जयसिंह देव, नरसिंह देव, कन्हरदेव द्वितीय शासक बने। इस वंश का अन्तिम शासन हरिश्चन्द्र देव हुआ।



कवर्धा का फणीनाग वंश


 मध्यकालीन भारतीय इतिहास में छत्तीसगढ़ के कवर्धा क्षेत्र फणीनाग वंश के नाम से जाना जाता था। चौरा गाँव के पास स्थित भग्नावशेष मड़वा महल के शिलालेख में फणीनाग वंश की उत्पत्ति का पता चलता है।


फणीनाग वंश के शासक रामचन्द्र ने मड़वा महल शिलालेख का निर्माण कराया था, यह शिलालेख 1349 ई. का है। रामचन्द्र का विवाह कल्चुरि राजकुमारी अम्बिका देवी के साथ हुआ था। मड़वा महल शिलालेख में पणीनाग वंश में अहिराज को नागों का राजा बताया गया है।



की प्वाइंट्स

  • चीनी यात्री हेनसॉग ने सिरपुर को किजा-सन्तो नाम से सम्बोधित किया।
  • सातवाहन काल में निर्मित पाषाण प्रतिमाएँ विलासपुर जिले से प्राप्त होती है। रोम के सोने के सिक्के बिलासपुर और चकरखेड़ा नामक गाँव से प्राप्त हुए हैं

  • महाभारतकालीन ऋषभ तीर्थ जांजगीर चकरखेड़ा नामक गाँव से प्राप्त हुए हैं।
  • गुप्तकालीन सिक्के छत्तीसगढ़ के वानवरद नामक स्थान पर प्राप्त हुए हैं।


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